आए फिर गर्मीयों के दिन
सुनो सुनो ऐ गांव वालों।
आए फिर गर्मीयों के दिन नहालों।
आम लगें है पेड़ पर करा है खानें का मन।
अरें तोडूगां यार तू मारना बाग वालें की आंख पर दर्पण।।
आंखे चूंधिया गयी देखकर दर्पण।
ऐसा होता है गांव में लड़को का बचपन।।
मां कहती है बेटा जल्दी आना।
तब कौन मानता है किसी का कहना।।
पिता करते है पूरा दिन काम।
शाम को करते फिर आराम।।
बेटा मिला रास्तें में खेलता।
फिर क्या था अच्छे से था पीटता।।
खेला बहुत खेल गुल्ली डंडें का।
अब तो टाइम ही मिलता है संडे का।।
खीरा ककडी तरबूज खूब खाओं गर्मी में।
फिर न कहना पानी शरीर में कम हो गया सर्दी में।।
बहुत बीमारी होती है शरीर में।
मौसमी फल भी खानें चाहिए मौसम की आन में।।
कभी बीमारी शरीर में नहीं आएगी।
खून की कमी भी पूरी होगी।।
आजकल तो डॉक्टर इतने टेस्ट कराते है।
आधी बीमारी तो रास्ते में ही ठीक हो जाती है, इतने चक्कर कटाते है रिपोर्ट कराने में।।
आजकल तो इतने बाजार में तरह तरह के खानें आ चुकें है।
इनको खाकर कितने ही अस्पताल के बैड़ पर पहुंच चुके है।।
आज की शिक्षा कहती है सोच बड़ी कर ।
हर काम में सबसे पहले पहल कर।।
जब तक पता न हो ईश्वर ना मान।
तभी तो आजकल पढ़-लिखकर भी बन रहें है शैतान।।
कभी डॉक्टर को भगवान मानते थे।
आज डॉक्टर के पास जाने से पहले सब डरते है।
पता नहीं क्या होगा हमारें पेंशन्ट का।
बस यही एक मौका उनके पास पैसा कमाने का।।
दे रहे है भगवान का धोखा।
अब तो शरीर को कहते है डैडबॉड़ी और खोखा।।
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